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प्राचीन भारतीय आर्थिक अवधारणा

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प्राचीन भारतीय एवं पशश्चात्य आर्थिक विचार

प्राचीन भारतीय आर्थिक अवधारणा

1.1 प्राचीन भारतीय अर्थ चिन्तन की उपयोगिता – 

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प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारों को सभी प्राचीन ग्रन्थों में महत्वपूर्ण स्थानं दिया गया है। यह भारतीय वाडमय का एक महत्त्वपूर्ण भाग है। पाश्चात्य अर्थ चिन्तकों ने प्राचीन भारतीय आर्थिक बिचारों को विवादास्पद बना दिया है। उनका कहना है कि भारतीय आर्थिक विचारों में वैज्ञानिकता का अभाव है। 

आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने इन विचारों पर ध्यान न देकर समाज एवं आर्थिक जगत की बहुत बड़ी निधि को पीछे छोड़ दिया था। ज्ञान की किसी भी शाखा को वैज्ञानिक बनाने के लिये आवश्यक है कि उसका विश्लेषणात्मक अध्ययन कर सभी सामान्य परिस्थितियों में खरे उतरने वाले मूल-भूत शाश्वत सिद्धान्तों को ग्रहण किया जाय। 

प्राचीन आर्थिक विचारों में सत्य का अभाव नहीं है। अतएव . तथा कथित वैज्ञानिकता के अभाव का बहाना लेकर भारतीय आर्थिक विचारों को उपेक्षित नहीं किया जा सकता और न ही मानव जाति के ऐतिहासिक विकास क्रम से अलग किया जा सकता है। 

वैदिक ग्रन्थों से सम्बद्ध आर्थिक विचार दर्शन, धर्म एवं नीतिशास्त्र से समन्वय स्थापित कर आगे बढ़े हैं। बे सदैव विकास की ओर उन्मुख रहे, क्योंकि सामाजिक एवं आर्थिक जीवन के विकास के साथ आर्थिक विचारों का विकास-क्रम भी चलता रहा है।

1.2 प्राचीन भारतीय अर्थ-चिन्तन की विशेषताएँ

प्राचीन भारतीय अर्थ-चिन्तन की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-

1. विधाओं का विभाजन-

प्राचीन भारतीय अर्थ-चिन्तन में विधाओं को निम्न चार भागों में विभक्त किया गया है, जिन्हें अर्थशास्त्र की शाखाएँ कहा जा सकता है |

(अ) आन्वीक्षिकी-

जिसमें दर्शनशास्त्र को प्रमुखता दी गई है।

(ब) त्रयी-

जिसमें राजा से अपेक्षा की गई है, कि वह ऋण्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद का अध्ययन करें ।

(स) वार्ता-

जिसमें कृषि, पशुपालन तथा वाणिज्य सम्बन्धी गतिविधियों को शामिल किया गया है।

(द) दण्डनीति-

जिसमें प्रशासन तथा न्यायु को शामिल किया गया है।

2. अर्थशास्त्र को सांस्कृतिक संविधान मानना – 

प्राचीन अर्थ-चिन्तन के अन्तर्गत अर्थशा् को सास्कृतिक संविधान निरूपित किया गया था, जिसमें यह निर्धारित किया जाता था कि राजा कि  प्रकार राज्य चलाए और किन-किन विधाओं का उसे ज्ञान होना चाहिए।

3. आधुनिक अर्थशास्त्र के तत्वों का समावेश- 

आधुनिक अर्थशास्त्र के अनेक तत्तों को प्राचीन भारतीय अर्थ-चिन्तन में सम्मिलित किया गया था। जिसे हम आज अर्थशास्त्र कहते हैं उसका संकुचित रूप वार्ता ही रहा है।

4. मानव के सामाजिक जीवन के अनुरूप परिवर्तन-

आर्थिक विचारों का अभ्युदय आदि मानव के साथ ही हुआ है। भिन्न-भिन्न युग में मानव के सामाजिक जीवन में परिवर्तन के साथ-सा4 आर्थिक विचारों में भी परिवर्तन होते रहे हैं।

5. अर्थशास्त्र के जनक-

प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारों के विशेषज्ञों ने आचार्य बृहस्पति, आचार्य कामन्दक, आचार्य कौटिल्य तथा आचार्य शुक्र विशेष रूप से उल्लेखनीय है। आचार्य बृहस्पति को अर्थशास्त्र का जनक माना जाता है।

6. दायित्व तथा कार्यों का विभाजन-

समाज को चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूट्र) के आधार पर विभाजित कर दिया गया था। कौन-सा वर्ग किन-किन कार्यों के लिए दायी है इस सम्बन्ध में नियम बना दिए गए थे। संस्कारों को सम्पन्न कराने का दायित्व ब्राह्मण वर्ग पर ही हुआ करता था। क्षत्रिय का कार्य शस्त्र विद्या एवं प्रजा की रक्षा करना निर्धारित किया गया था। 

वैश्य को उद्योग-धन्धे चलाने, व्यापार करने तथा पशुपालन में दक्ष होने का दायित्व सौंपा गया था। शुद्र का कार्य केवल दूसरों की सेवा करना था। इन चारों वर्णों की वृत्ति तथा जीविका के अलग-अलग उपाय व साधन बताए गए थे।

7. राजा के कर्त्तव्यों अधिकारों की व्याख्यासूत्र-

ग्रन्थों, स्मृतियों तथा शास्त्रकारों ने राजा के अधिकारों व कर्त्तव्यों की विशद्‌ व्याख्या की थी तथा तत्सम्बन्धी नियम बनांए थे। प्राचीन सामाजिक व्यवस्था का नियन्ता केवल राजा ही होता था। वह राजकीय नियमों के अनुसार सामाजिक क्रियाओं का संचालन करता था , किन्तु राजा शास्त्रों द्वागा बनाए गए नियमों का उल्लंघन करके कोई भी कार्य नहीं कर सकता था।

8. गृहस्थ जीवन का स्वरूप-

सामाजिक दृष्टि से मानव शक्ति को सर्वोपरि माना गया था। यह नियम था कि प्रत्येक व्यक्ति विवाह करके गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करे। प्रारम्भ में स्त्रियों का महत्त संतानोत्पत्ति की दृष्टि से ही रहा किन्तु बाद में उन्हें श्रम शक्ति के अंग के रूप में मान्य किया गया और वे नाना प्रकार के कार्यों में पुरुषों को सहयोग करने लगी।

9. पूँजी का महत्व-

आस्म्भ में पूँजी का क्षेत्र बहुत सीमित था किन्तु जैसे-जैसे मानव की आवश्यकता में वृद्धि होती गई, पूँजी की आवश्यकता तथा महत्त्व को समझा गया। यह स्वीकार किया गया कि पूँजी के बिना किसी वस्तु का उत्पादन नहीं हो सकता। ह

10, पशुधन की महत्ता-

पशुधन का भारतीय अर्थव्यवस्था में अत्यधिक महत्त्व रहा है। बैलों की “सहायता से खेत जोतना, बीज बोना व अन्य कार्य करना प्राचीन युग की विशेषता रही है। पशुओं के गोबर : व मूत्र से खाद बनायी जाती थी तथा खेतों में डाली जाती थी जिससे उत्पादन अच्छा होता था। दूध, घी आदि की जरूरतें पशुपालन से ही पूरी होती थीं। गौधन इसी कारण पूज्य माना गया था।

11. व्यापार के सिद्धान्त

व्यापार के निर्धारित सिद्धान्त थे। व्यापारियों की रक्षा करना राज्य का उत्तरदायित्व और यदि राज्य वैसी रक्षा न कर सके तो क्षतिपूर्ति के लिए राज्य स्वयं दायी होता था। बस्तुओं की पूर्ति के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहता था। आपत्ति के समय बाहर जाने वाली वस्तुओं पर शज्य को रोक लगाने का अधिकार था।

1.4 भारतीय आर्थिक विचारों के स्रोत –

भारतीय वाडूमय का यह महत्वपूर्ण भाग हऐ। इसके संस्कृत, पाली एवं प्राकृत भाषाओं में ही उपलब्ध होने के कारण इस दिशा में आर्थिक विचारों का आधुनिक भाषाओं में सकलन व वैज्ञानि ढंग से प्रस्तुतीकरण नहीं हो सका है। इन स्रोतों को हम निम्नलिखित भागों में विभाजित कर सकते हैं

  1. वैदिक साहित्य – वैदिक साहित्य के अन्तर्गत चार वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अर्थर्ववेद), उपनिषद (मुख्यतः 108), आरण्यक, ब्राह्मण, सूत्र ग्रन्थ, जातक आदि को सम्मिलित किया जाता है।
  2. स्मृति साहित्य – स्मृतियों की संख्या सौ से भी अधिक है, परन्तु प्रमुख स्मृतिकारों में मनु, याज्ञवल्क्य, नारद, वृहस्पति, गौतम, पराशर आदि के नाम प्रमुख हैं। इन विचारों ने आर्थिक विचारों को ‘ बहुत महत्व प्रदान किया है। 
  3. पुराण साहित्य– इसके अन्तर्गत रामायण, महाभारत एवं उप-पुराणों को सम्मिलित किया जाता है। इनमें वायु, अग्नि, विष्णु, वामन, भागवत आदि ऐसे पुराण हैं, जिनमें अर्थव्यवस्था सम्बन्धी विचारों का पर्याप्त वर्णन किया गया है। 
  4. काव्य साहित्य– इसमें कालिदास, बाणभट्ट, भास, शूद्रक, दण्डी आदि के ग्रन्थों को सम्मिलित किया जाता है।

1.5 निष्कर्ष-

उपर्युक्त विवेचन से हम यह निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आधुनिक आर्थिक विचारों में प्राचीन आर्थिक विचारों का अत्यन्त विकसित रूप ही हमें देखने को मिलता है। उदाहरण के लिये सामाजिक कल्याण की भावना, द्रव्य सम्बन्धी व्यवहार, विनिमय, ब्याज, लगान, सम्पत्ति, धन आदि विषयक विचार आधुनिक युग की ही देन नहीं ‘है। इनका उद्भव अत्यन्त प्राचीन है। इतिहास के साथ-साथ ये विचार परिष्कृत होते हुए इस युग तक पहुँचे और इनका वर्तमान स्वरूप देखने को मिला। 

आचार्य कौटिल्य के विचार आधुनिक अर्थव्यवस्था के लिये मूल स्रोत कहे जा सकते हैं। प्रो. मार्शल, प्रो. पीगू आदि की परिभाषाएँ कौटिल्य के विचारों से बहुत कुछ मेल खाती हैं। केवल परिस्थितियों के अनुकूल ही इनका स्वरूप परिवर्तित कर दिया गया है। इसलिये यदि पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों को प्राचीन भारतीय चिन्तकों का. अनुयायी मान लिया जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ।

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