आयनिक साम्य
सन् 1842 में फैराडे ने सभी पदार्थों को इनके जलीय विलयन में से विद्युत धारा प्रवाहित होने देने की क्षमता के आधार पर दो वर्गों में विभाजित किया।
- विद्युत् अपघट्य
- विद्यत अनअपघट्य
विद्युत् अपघट्य– वे यौगिक जो जलीय विलयन में विद्युत् का चालन करते हैं, विद्युत् अपघट्य (electrolyte) कहलाते हैं। Ex- अकार्बनिक अम्लों, क्षारकों एवं लवणों के जलीय विलयन
विद्यत अनअपघट्य -जो यौगिक जलीय विलयन में या पिघली हुई अवस्था में विद्युत का चालन नहीं करते हैं विद्युत् अनपघट्य (non-electrolyte) कहलाते हैं। उदाहरणार्थ-यूरिया, शर्करा आदि के जलीय विलयन ,
आयनन की मात्रा
Arrhenius ने सन् 1880 में बताया कि विद्युत् अपघट्यों में विद्युत का चालन, आयनों की उपस्थिति के कारण होता है जोकि विद्युत् अपघट्यों के वियोजन (dissociation) से उत्पन्न होते हैं। ये आयन ही विद्युत् धारा के वाहक होते हैं।
कुल अणुओं का वह अंश जो आयनों में वियोजित हो जाता है, वियोजन या आयनन की मात्रा कहलाता है
प्रबल एवं दुर्बल वैद्यत अपघट्य– वियोजन की मात्रा के आधार पर फैराडे ने विद्युत अपघट्यों को दो संवर्गों में–
प्रबल विद्युत् अपघट्य‘ – वह विद्युत् अपघट्य जो लगभग पूर्णतः वियाजित हो जाता है, प्रबल विद्युत अपघट्य कहलाता है, जैसे-NaOH, KOH, HCl, H2SO4, NaCl, KNO3, HNO3
दुर्बल विद्युत् अपघट्य – वे विद्युत् अपघट्य जो जलीय विलयन में बहुत कम वियोजित होते हैं (आंशिक रूप से आयनित), दुर्बल विद्युत् अपघट्य कहलाते हैं। जैसे- NH4OH, CH3COOH आदि।
दुर्बल विद्युत् अपघट्यों का आयनन एवं ओस्टवाल्ड का तनुता नियम
ओस्टवाल्ड ने दर्बल विद्युत् अपघट्यों के सम्बन्ध में एक नियम प्रस्तुत किया जिसे ओस्टवाल्ड का तनुता नियम कहते हैं। इस नियम के अनुसार, “दुर्बल विद्युत् अपघट्य के आयनन की मात्रा तनुता के वर्गमूल के समानुपाती या सान्द्रता के वर्गमूल के व्युत्क्रमानुपाती होती है।”
- इस नियम की सहायता से दुर्बल विद्युत् अपघट्य के आयनन की मात्रा ज्ञात की जा सकती है
- आयनन स्थिरांक (साम्य स्थिरांक) की गणना की जा सकती है।
अम्ल और क्षारकों की विभिन्न धारणाएँ
अम्ल तथा क्षारों की व्याख्या करने के लिए कई अवधारणाएँ दी गई हैं जो निम्नलिखित है-
(1) Arrhenius की धारणा -Arrhenius के सिद्धान्त के अनुसार, अम्ल वह पदार्थ है जो जल में घुलकर हाइड्रोजन आयन (H+) मुक्त करता है। HCl (aq) = H+ (aq) + Cl–(aq)
चूँकि H+ आयन अति क्रियाशील होने के कारण स्वतन्त्र रूप में नहीं रह सकता है इसलिए स्वतन्त्र रूप में जलीय विलयन में इसका अस्तित्व नहीं होता है। यह जल के अणु के साथ संयोग करके हाइड्रोनियम आयन (H3O+) बनाता है |
अतः अम्ल वह पदार्थ है जो जलीय विलयन में हाइड्रोनियम आयन (H3O+) देता है; जैसे-
HCl (aq) +H2O= (H3O+) aq + Cl–(aq)
क्षार वह पदार्थ है जो जलीय विलयन में घुलने पर हाइड्रॉक्सिल आयन देता है।
NaOH + H2O = Na+ (aq) + OH- (aq)
आहीनियस की उपयुक्त अम्ल-क्षारक धारणा पदार्थों के जलीय विलयन पर ही लागू होती है।
अम्ल तथा क्षारकों की ब्रॉन्स्टेड एवं लौरी संकल्पना
Arrhenius के आयनिक सिद्धान्त के अनुसार, उन्हीं हाइड्रोजन युक्त अम्लों और हाइड्रॉक्सी क्षारों के गुणों का स्पष्टीकरण किया जा सकता है जो जल में घुलनशील होते हैं और आयन देते हैं, किन्तु यह उन पदार्थों के लिए लागू नहीं किया जा सकता जो जल में अघुलनशील होते हैं। उदाहरणार्थ NaNH2 द्रव अमोनिया में घुलकर एक क्षारक के समान व्यवहार प्रदर्शित करता है, किन्तु OH– आयन नहीं देता है।
लौरी और ब्रोन्स्टेड ने सन् 1913 में अम्ल तथा क्षारकों की व्याख्या के लिए एक नवीन परिभाषा प्रस्तुत की जिसे जलीय और अजलीय विलयन दोनों के लिए लागू किया जा सकता है। इसे प्रोटॉन विनिमय (proton exchange) सिद्धान्त कहते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार,
अम्ल वह पदार्थ (अणु या आयन) है जो किसी अन्य पदार्थ को प्रोटॉन प्रदान कर सकता है तथा क्षारक वह पदार्थ (अणु या आयन) है जो किसी अन्य पदार्थ से प्रोटॉन ग्रहण कर सकता है । अतः अम्ल प्रोटॉनदाता और क्षारक प्रोटॉनग्राही होता है।
अम्ल और क्षारक की लुईस धारणा –
कछ पदार्थ H या OH–आयनों की अनुपस्थिति में भी अम्लीय और क्षारकीय स्वभाव प्रकट करते हैं। जैसे निर्जल so2, इसलिए लुईस ने अम्ल और क्षारकों का एक व्यापक सिद्धान्त दिया जिसके अनुसार, वे सभी पदार्थ (आयन, मूलक या अण) क्षारक होते हैं जिनमें मुक्त एकाकी इलेक्ट्रॉन युग्म होता है और जिसे वे रासायनिक अभिक्रिया में दान कर सकते हैं
अम्ल वे पदार्थ होते हैं जो रासायनिक क्रिया में इलेक्ट्रॉन युग्म को ग्रहण कर सकते हैं अर्थात् अम्ल इलेक्ट्रॉन युग्म ग्राही और क्षारक इलेक्ट्रॉन युग्म दाता होता है।
उदाहरणार्थ, निम्न अभिक्रिया के अनुसार, अमोनिया का अणु एक इलेक्ट्रॉन युग्म का दान करता है और बोरोन ट्राइफ्लुओराइड उस इलेक्ट्रॉन युग्म को स्वीकार करता है |
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