मानव जनन | पुरुष जनन तंत्र | वृषण | स्त्री जनन तंत्र | गर्भाशय

मानव जनन

परिचय

  • जनन एक ऐसी क्रिया है जिसमें जीवित प्राणी स्वयं के समान जीवों को उत्पन्न करता है और जनन तंत्र अंगों का ऐसा तंत्र है जो इस विधि में भाग लेता है।
  • मानव लेंगिक रूप से जनन करने वाला और सजीवप्रजक या जरायुज प्राणी है।
  • लैंगिक जनन में जनन की गति धीमी होती है।
  • मनुष्य एकलिंगी होता है। प्रत्येक लिंग के प्रजनन तंत्र में अनेक अंग पाये जाते हैं। जिन्हें प्राथमिक एवं द्वितीयक लैंगिक अंगों में विभेदित किया जाता है। इनके अलावा कुछ सहायक लैंगिक लक्षण भी होते हैं।

 

  • प्राथमिक लैंगिक अंग: इनको जनदभी कहा जाता है जो ढ युग्मकों का निर्माण करते हैं, जैसे पुरूषों में वृषण एवं महिलाओं में अण्डाशय। वृषणों में शुक्राणु बनते हैं एवं वे टेस्टेस्टीरॉन स्त्रावित करते हैं। अण्डाशय अण्डाणु उत्पन्न करता हे और एस्ट्रोजन हॉर्मोन,स्रावित करता है।
  • द्वितीयक लैंगिक अंग वो लैंगिक अंग, ग्रन्थियाँ एवं नलिकायें हैं जो कि युग्मक उत्पन्न नहीं करते परन्तु प्रजनन के लिये आवश्यक होते हैं।
  • सहायक»“बाहाद्वितीयक लैंगिक लक्षण वे लक्षण हैं, जो प्रजनन में सीधी भूमिका नहीं निभाते बल्कि दोनों ही लिंगों को विशेष लक्षण एवं संरचना प्रदान करते हैं।

* लैंगिक परिपक्वता या योग्यता की शुरूआत वयस्कता या यौवन (एपफ०-५) कहलाता है। लड़कियों में योवन 10 से 14 वर्ष की उम्र में एवं लड़कों में 13 से 15 वर्ष की उम्र में प्रारम्भ होता है।

पुरुष जनन तंत्र

  • पुरुष जनन तंत्र शरीर श्रोणि क्षेत्र (पैल्विस क्षेत्र) में व्यवस्थित होता है। इसके अन्तर्गत आते हैं एक जोड़ा वृषण एक जोड़ा नलिका तंत्र जिसमें शामिल हैं अधिवृषण शुक्रवाहिका, शुक्रवाहक स्खलनीय वाहिनी और मृत्रमार्ग।

वृषण

  • प्रत्येक वृषण अंडाकार आकार का होता है और इसमें 4 से 5 सेमी लम्बाई और 5 सेमी चौड़ाई होती है।
  • शरीर में वृषण उदर गुहा के बाहर एक थैली में स्थित होते हैं जिसे वृषणकोष ( स्क्रोटम ) कहते हैं।
  • वृषणकोष अनुकूलतम तापमान में शुक्राणुजनन के लिए आवश्यक है का तापमान जो शरीर के तापमान से 2-2.5 डिग्री सेंटीग्रेड कम होता है |
  • वृषण वृषणकोष से एक संयोजी ऊतक की पटिटका से जुड़ा होता है जिसे गुबरनैक्यूलम वृषण कहते हैं ओर वृषणकोष वक्षणनाल के द्वारा उदर गुहा से जुड़ा रहता है।
  • प्रत्येक वृषण में लगभग 250 कक्ष होते हैं जिन्हें वृषण पालिका ( टेस्टिकुलर लोब्युल्स ) कहते हैं । प्रत्येक वृषण पालिका के अंदर एक से लेकर तीन अतिकुंडलित शुक्रजनक नलिकाएँ (सेमिनिफेरस ट्यूबुल्स) होती हैं जिनमें शुक्राणु पैदा किए जाते हैं।
  • प्रत्येक शुक्रननक नलिका जननी उपकला से स्तरित होती है। ये दो प्रकार की कोशिकाओं से बनी होती हैनर जर्म कोशिकाएँ (शुक्राणुजन/ स्पर्मेटेगोनिया) और सर्टोली कोशिकाएँ।
  • जनन कोशिकाएँ शुक्राणुजनक होती हैं और शुक्राणु को बनाती हैं तथा सर्टोली कोशिकाएँ (जिनको सबटैन्टाक्यूलर कोशिका भी कहा जाता है) धाय कोशिकाओं के रूप में शुक्राणु को विभेदित करने का कार्य करती हं।
  • शुक्रजनक नलिकाओं के बाहरी क्षेत्र को अंतराली अवकाश (इंटरस्टीशियल स्पेस) कहा जाता है। इसमें छोटी-छोटी रुधिर वाहिकाएँ और अंतराली कोशिकाएँ या लेडिग कोशिकाएँ होती हैं।
  • लेडिग कोशिकाएं वृषण नर लेंगिक हामोंन (टेस्टोस्टेरॉन) का संश्लेषण तथा स्रवण करती हैं जिससे जनन एपिथेलियल कोशिकाओं की वृद्धि तथा मरम्मत होती है तथा द्वितीयक लैंगिक लक्षणों का विकास होता है।

द्वितीय लैंगिक अंग/ग्रन्थियां

  • वृषण की शुक्रजनक नलिकाएँ वृषण नलिकाओं के मध्यम से शुक्रवाहिकाओं में खुलती हैं। यह शुक्रवाहिका वृषण से चलकर अधि वृषण में खुलती हैं, जो प्रत्येक वृषण के पश्च सतह पर स्थित होती है।
  • अधिवृषण शुक्राणु के अस्थायी संग्रहण, पोषण और कायिकीय पक्‍वता और गतिशीलता में अंतग्रस्त रहता है। अधिवृषण तीन भागों में विभाजित होता हेअग्रवर्ती कैपुट अधिवृषण, मध्यवर्ती कॉर्पस अधिवृषण और परवर्ती कौडा अधिवृषण (यहाँ शुक्राणु सान्द्रित होता है और स्खलन तक संग्रहित रहता है।)
  • मूत्रमार्ग के शक्तिशाली तालमय संकुचन से होने वाले वीर्य के छोड़े जाने को स्खलन कहते है।
  • वाहिनी तंत्र वीर्य को बाहर की तरफ प्रेरित करता है। शुक्रवाहक एक बड़ी वाहिनी है जो कोडा अधिवृषण से निकलती है शुक्राशय तक पहुँचती है। यह स्खलन के तैयारी में परिपक्व शुक्राणुओं को मूत्रमार्ग में ले जाती है।
  • स्खलनीय नलिका छोटी, सीधी ओर पेशीय नलिका होती है और प्रत्येक नलिका शुक्रवाहक ओर शुक्राशय के जोड्‌ से बनती है। इनमें संकुचित क्रियाविधि होती है जो शुक्राशीय द्रव्य के निकलने में मदद करती है।
  • मूत्रमार्ग प्रोस्टेट ग्रन्थि के द्वारा मूत्राशय से निकलता है और शिश्न में मिलता है। मूत्रमार्ग के चार भाग होते हैंप्री-प्रोस्टेटिक, प्रोस्टेटिक, झिल्लीमय और पीनाइल।
  • आखिरी के दो वीर्य और शुक्राशीय द्रव्य के लिए बाहर निकलने वाला रास्ता बनाते हैं। शिशन एक पुरुषीय मैथुनी अंग है। शिश्नमुड , शिश्न के शिखर पर बना हुआ, उद्दीपन का एक अति संवेदनशील अंग है।
  • शिश्नाग्रछद एक ढीली सिकुडने वाली अग्रत्वचा है जो शिश्नमुड को ढकती है। शुक्राशय, प्रोस्टेट ग्रंथि तथा एक जोड़े बल्योयूरेश्रल ग्रंथियों का स्राव शुक्रीय ( सेमिनल ) प्लाज्या का निर्माण करता है जो फ्रक्टोज, कैल्शियम तथा कुछ प्रकिण्व (एंजाइम्स) से भरपूर होता है।

 

  • बल्बोयूरेध्रल ग्रथियों का स्राव मैथुन के दौरान शिश्न में स्नेहन (लूब्रिकेशन) प्रदान करने में भी सहायक होता है। , शुक्राशय पेशीय दीवार युक्त लम्बी थैलियाँ होती हैं। ये मूत्राशय और मलाशय के बीच पायी जाती हैं। ये शुक्राणु को सक्रिय करने वाले पदार्थों को स्त्रावित करती हैं, जैसे – फ्रक्टोज, सिट्रेट, आइनोसिटॉल, प्रोस्टाग्लेण्डिन, एवं अन्य प्रोटीन।
  • शुक्राणु फ्कटोस को ऊर्जा के लिये उपयोग में लाता है। शुक्राशय सें स्त्रावित होने वाला द्रव्य शुक्राणु को जीवित एवं गतिशील बनाये रखने में सहायक होता है। शुक्राशय एक क्षारीय, पोषक द्रव्य स्त्रावित करता है, जोकि वीर्य का 60% भाग बनाता है। शुक्राशय को यूटरस मस्क्युलाइनस भी कहते हैं। यह भ्रूण की मुलेरियन नलिका है।
  • मादा में शुक्राशय अण्डवाहिनी बनाती है। शुक्राशयओ को संग्रहित करने का कार्य नहीं करता है। ग्रश्थि मृत्रमार्ग के प्रथम भाग को घेरे रहती है। इसके द्वारा एक हल्का अम्लीय द्रव्य स्त्रावित किया जाता है, जो वीर्य का 25% भाग बनाता है। यह स्त्रव शुक्राणुओं को पोषण एवं तैरने के लिये सक्रियता प्रदान करता है। यह शुक्राणु को गतिशील बनाने के लिये आवश्यक होता है। (इसे शल्य क्रिया द्वारा हटा देने से बन्ध्यता उत्पन्न होती है।)
  • प्रोस्टेट ग्रन्थि के स्त्राव में सिट्रिक अम्ल, कैल्शियम एवं फॉस्फेट, फाइब्रिनोजेन एवं फाइब्रिनोलाइसिन उपस्थित होता है। प्रोस्टेट ग्रन्थि का स्राव, शुक्राशय के स्त्राव के साथ मिलकर वीर्य को स्कन्दित करता है। इस स्कन्दित वीर्य में शुक्राणु की गतिशीलता कम हो जाती है, जिससे उसकी ऊर्जा संरक्षित रहती है। किन्तु कुछ समय के पश्चात्‌ फाइब्रिनोलाइसिन के कारण वीर्य पुनः तरल हो जाता है, एवं इस वीर्य में शुक्राणु अब स्वतंत्रता पूर्वक गति कर सकते हैं।

 

  • काउपर्स ग्रन्थि को बल्बोयूरेश्रल ग्रन्थियाँ भी कहते हैं। काउपर्स ग्रन्थियों का एक जोड़ा मूत्रमार्ग से है. 5 हुआ पाया जाता है। ये मूत्रमार्ग के स्पंजी भाग में क्षारीय द्रव्य (श्लैष्म) स्त्रावित करते हैं, यह श्लेष्म प्रजनन नलिका को चिकना बनाता है। यह मृत्रमार्ग में मूत्र के शेष बचे अम्लों को उदासीन करता है। काउपर्स ग्रन्थियों का स्त्राव वीर्य स्खलन के पहले स्त्रवित किया जाता है।
  • काउपर्स प्रन्थियों के स्त्राव में स्खलन के पहले से ही कुछ शुक्राणु पाये जाते हैं। जन्म नियंत्रण की हटायी गई विधियों की उच्च असफलता के कारणों में एक कारण यह भी है।

नर प्रजनन तन्त्र का हॉर्मोनी नियंत्रण

  • ट्वितीयक लेंगिक अंगों की वृद्धि, देख रेख एवं कायों का नियंत्रण व॒षणों की लेडिग कोशिकाओं द्वारा स्त्रावित टेस्टोस्टीरॉन हॉमोंन के द्वारा होता है, जबकि शुक्रजनक नलिकाओं एवं लेडिग कोशिकाओं का नियंत्रण क्रमशः अग्रवर्ती पीयूष ग्रन्थि द्वारा सत्रावित फॉलिकुलर उत्प्रेरक हॉमोंन एवं अन्तराली कोशिका उत्प्रेरक हॉर्मोन (08) से होता है।

स्त्री जनन तंत्र

  • स्त्री जनन तंत्र के अंतर्गत एक जोड़ा अंडाशय एक जोड़ अंडवाहिनी, एक गर्भाशय (पाॉथप्रछ), एक योनि  बाह्य जननेन्द्रिय  ओर एक जोड़ा स्तन ग्रंथियं  होती हैं।

अंडाशय

  • अंडाशय से मादा युग्मक (अंडाणु) तथा कुछ स्टीरॉयड हामोंन (अंडाशयी हामोन) पैदा होते हैं।
  • अंडाशय उदरीय भित्ति से अंडाशीय स्नायु से जुड़ी होती है जिसे मीसोवैरियम कहते हैं।
  • प्रत्येक अण्डाशय की सघन एवं ठोस संरचना होती है, एवं बाह्य बल्कुट तथा भीतरी मेड्यूला में विभाजित होता है।
  • वल्कुटीय भाग के स्ट्रोमा में तन्तुरूपी फाइब्रोब्लास्ट पाये जाते हैं। सघन संयोजी ऊतक का स्तर वबल्कुट को चारों ओर से घेरे रहता है, जिसे दयूनिका एल्बूजीनिया कहते हैं। यह अण्डाशय को सफेद रंग प्रदान करते हैं।
  • टयूनिका एल्बूजीनिया के बाहर की ओर सरल स्कक्‍वेमस उपकला या क्यूबाइडल उपकला की बनती हुई जनन उपकला पायी जाती है।
  • अडाशयी पुटक अपने परिवर्धन के विभिन्‍न चरणों में स्ट्रोमा में अन्त: स्थापित होते हैं।
  • एक विशिष्ट संरचना है जिसमें अण्डक वृद्धि करते हैं ओर अर्धसूत्री विभाजन-1 घटित होता है।

 

  • परिपक्व गर्त्त को ग्राफी पुटक कहा जाता है जिसमें एक एकल गुहा होती है, जिसे गह्मवर कहते हैं, और एक द्वितीय अण्डक (जो अण्डोत्सर्ग के लिए तैयार रहता है उसे भी धारण करता है।
  • टूटे हुए ग्राफी पुटक को पीतपिंड (कॉर्पस ल्यूटियम) (एक अस्थायी अन्तः स्त्रावी ग्रन्थि जो प्रोजेस्ट्रोन हॉर्मोन का स्त्राव गर्भावस्‍था को बनाए रखने के लिए करता है) कहते हैं।
  • कॉर्पस ल्यूटियम (पीतपिंड) अपना पीला रंग छोड देता है और निष्क्रिय हो जाता है और एक छोटे से कोशिका के समूह में बदल जाता है जिसे कॉर्पल एल्बिकन्स कहते हैं।

द्वितीय लैंगिक अंग/ग्रन्थि

अण्डवाहिनी

  • अण्डवाहिनी को गर्भाशय दयूब भी कहा जाता है।
  • अण्डवाहिनी का विकास भ्रूण की मुलेरियन नलिका से होता है। यह अण्डे (०८९) को अण्डाशय से गर्भाशय में पहुँचाती है, एवं इसके निषेचन के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ उपलब्ध कराती है। यह पेरीटोनियम के दोहरे वलय के द्वारा सधी होती है, जिसे मीसोसल्पिंक्स कहते हैं। प्रत्येक अण्डवाहिनी (0श09ए८) चार भागों में विभाजित होती हैकीपक (ए्राणिवांशणंणा॥।) जो अंगुलीनुमा प्रक्षेपण, जिन्हें फिम्न्री कहा जाता है, से घिरे होते हैं, तुम्बिका (जगह जहाँ पर अण्डाशय का निषेचन होता है), इस्थमस ओर यूटेरिन भाग।
  • फिम्ब्री अण्डोत्सर्ग के अण्डाशय को इकट्ठा करने में मदद करते हैं। अण्डवाहिनी को काटना और उसके दोनों सिरों का अलग से बाँधने को दयूबैक्टमी कहते हैं।

गर्भाशय

  • गर्भाशय, मूत्राशय के पीछे एवं ऊपर की ओर पायी जाने वाली नाशपाती के समान, खोखली, पेशीय, मोटी दीवार वाली किन्तु फैलने योग्य मध्यवर्ती संरचना होती है। ये भ्रूण के विकास एवं पोषण के लिये बनी होती है। इसलिये गर्भाशय में बहुत अधिक फेलने का गुण पाया जाता है। खाली गर्भाशय 5 सेमी. लम्बा 5 सेमी चौड़ा और 2.5 सेमी. मोटा होता है। शल्यक्रिया द्वारा गर्भाशय को.निकालने को हिस्टेरैक्टमी कहते हैं। गर्भाशय की तीन परतें होती हैंबाहरी पेरीमैट्रियम, बीच की मायोमैट्यिम (जो सबसे घनी होती है जिसमें एरीओलर संयोजी ऊतक और सरल पेशीय तंतु होते हैं) और आन्तरिक एण्डोमैट्यम। गर्भावस्‍था के दौरान एण्डोमैट्रियम अपरा का मातृक भाग बनाती है।
  • गर्भाशय पूर्वभ्रूण के अंतर्रोषण और उसके बाद होने वाली एम्ब्रयोनिक और गर्भसंबंधी विकास की जगह है। गर्भाशय ग्रीवा के माध्यम से योनि में खुलता है। ग्रीवा नाल, गर्भाशय ग्रीवा की गृहा, योनी के साथ जनन नाल बनाती है।

 

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