लघुबीजाणु या परागकण की संरचना
- परागकण नर युग्मकोद्भिद् की प्रथम कोशिका है।
- परागकण के चारों तरफ दो आवरण पाये जाते हैंबाह्य चोल तथा अंतः चोल।
- बाह्य आवरण या बाह्य चोल मोटा, कठोर तथा अलंकृत होता है। यह बाह्य आवरण क्यूटीन तथा स्पोरोपोलेनिन का बना होता है। स्पोरोपोलेनिन अत्यधिक प्रतिरोधी होता है। यह उच्च ताप तथा सुदृढ अम्लों एवं क्षारों के सम्मुख टिक सकता है। इसका जैविक अपघटन नहीं होता है। स्पोरोपोलेलिन जोस्टेरा के परागकण में उपस्थित नहीं होता है।
- टेक्टम, बाह्य चोल की एक उप परत, पराग कणों की सतह पर एक विशिष्ट नकाशी या डिज़ाइन प्रदान करती है।
- परागकणों का आंतरिक आवरण पतला व कोमल होता है हमे अन्तःचोल कहते हैं। यह पेक्टीन और सैल्यूलोज अथवा पेक्टोसैल्यूलोज का बना होता है।
- कुछ स्थानों पर परागकर्णों में बाह्य सतह पर बाह्य चोल अनुपस्थित अथवा पतली परत के रूप में उपस्थित होता है। इन स्थानों को जनन छिद्र कहते हैं। इन जनन छिद्रों से ही अन्त चोल परागनलिका बनकर अंकुरण के समय बाहर निकलता है।
- जनन छिद्रों की संख्या व संरचना तथा बाह्य चोल का अलंकरण एक वर्गिकी महत्व का लक्षण है।
- परागकणों के विस्तृत हि अध्ययन को परागकण विज्ञान वा “पेलिनोलोजी ” कहते हें।
- कैप्सेला के पराग कणों में 3 प्रकार के जनन छिद्र पाए जाते हैं। ये जनम छिद्र स्लिट या लैन्स के समान होते हैं। इन परागकणों को ट्राईकोल्पेट कहते हैं। एकबीजपत्रियों में एक जनन छिद्र पाया जाता है इसलिए परागकणों को मोनोकोल्पेट कहते हैं।
- जिन पादपों में कीटों द्वारा परागण होता है उनके परागकणों के चार तरफ एक तैलीय ओर चिपचिपी परत पायी जाती है। इसे पोलनकिट कहते हैं। यह लिपिड तथा केरोटिनोइड की बनी होती है।
पोलचकिट केक कार्य हैं :
- इसकी तेलीय परत परागकणों को हानिकारक पराबैंगनी इसकी तैलीय कारक पराबैंगनी विकिरणों से बचाती है |
- इसकी चिपचिपी सतह परागकणों को कीटों पर चिपकने में सहायता करती है। – इसका पीला रंग कौटों को आकर्षित करता है
- कैप्सैला के परागकणों पर पोलनकिट उपस्थित होता है।
परागकोष का स्फ्टन- (dehiscence of anther)
- परागकोष के परिपक्वन के दोरान परागकोष की भित्तियों में विभिन्न परिवर्तन होते हें।
- सर्वप्रथम मध्यस्तर, टेपीटम द्वारा खाद्य पदार्थ अवशोषित कर लेने के कारण नष्ट हो जाती हे।
- टेपीटम की कोशिकाओं में जब यूबिश काय का निर्माण हो जाता है तो परागधानी की गुहा में लघुबीजाणुओं के निर्माण के साथ टेपीटम नष्ट हो जाती है। इस परागकोष में बाह्य आवरण के रूप में अधिचर्म व एण्डोथीसियम शेष रह जाती है।
- दोनों परागकोषों के बीच में बन्धध ऊतक उपस्थित होता है। परागकोष की पाली क्षतिग्रस्त हो जाती है। इसलिए परागकोष की प्रत्येक पाली की दोनों परागधानियाँ परस्पर जुड़कर एक ही परागधानी का निर्माण कर लेती है। इस प्रकार परिपक्व परागकोष की अनुप्रस्थ काट में केवल दो ही परागधानियाँ उपस्थित होती हैं।
- परागकोष का स्फुटन शुष्क मौसम में होता है। एण्डोथीसियम की कोशिकाओं से जल की हानि होती है, क्योंकि यह आद्रताग्राही होती है।
- जल की हानि के कारण एण्डोथीसियम की कोशिकाओं की भित्तियां सिकुड॒ती है परन्तु आंतरिक व अरीय भित्तियां तंतुमय स्थूलित होने के कारण सिकुड़ नहीं पाती। लेकिन इसकी बाह्य भित्तियां पतली होने के कारण सिकुड़कर अवतल हो जाती है।
- बाह्य भित्तियों के अवतल होने से परागकोष के सम्पूर्ण बाह्य सतह पर खिंचाव बल (तनाव) उत्पन्न हो जाता है। इस खिंचाव बल के कारण स्टोमियम की पतली भित्तियुक्त कोशिकाएं टूट जाती है जिससे परागकोष स्फूटित हो जाता है तथा दोनों परागकोष में उपस्थित परागकण वातावरण में मुक्त हो जाते हैं।
- आवृतबीजी में परागकोष का स्फुटन अनुदैर्ध्य/लम्बवत् अथवा अग्रस्थ छिद्र के द्वारा अथवा अनुप्रस्थ अथवा कपाटीय प्रकार का हो सकता है। कंप्सेला के परागकोष का स्फूटन लम्बवत् होता है।
नर युग्मक जनन
- पुष्पीय पादपों में पपागकण या लघुबीजाणु को नर युग्मकोद्भिद् की प्रथम कोशिका माना जाता है।
- परागकणों का विकास या अंकुरण परागकोष के स्फूटन से पहले ही प्रारम्भ हो जाता है। इसे अकालपक्व परिवर्धन कहते हैं।
- परागकण का परिवर्धन अपने मातृ स्थान (परागकोष की परागधानी में) पर ही प्रारम्भ हो जाता है, इसे स्वःस्थाने परिवर्धन कहते हैं।
परागण से पूर्व परिवर्धन
- प्रक्रिया के प्रारंभ में परागकण का एकमात्र केन्द्रक असमान समसूत्री विभाजन से विभाजित होकर दो असमान केन्द्रकों का निर्माण करता है। इनमें से एक छोटा केन्द्रक भित्ति के निकट स्थित रहता है उसे जनन केन्द्रक कहते हैं तथा दूसरा बड़ा केन्द्रक जो कोशिका द्रव्य के लगभग मध्य में स्थित होता है उसे नलिका या कायिक केन्द्र कहते हैं। दोनों केन्द्रकों के चारों ओर उभयोत्तल आकृति में कोशिका द्रव्य घना होकर विभाजित हो जाता है जिससे दो असमान आकार की कोशिकाओं का निर्माण होता है।
- बडी कोशिका जिसमें बड़ा अनियमित आकृति का केन्द्रक उपस्थित होता है कायिक कोशिका कहलाती है और छोटी तर्कु आकृति की कोशिका जो कायिक कोशिका के कोशिका द्रव्य में तेरती है तथा जिसमें छोटा केन्द्रक उपस्थित होता है उसे जनन कोशिका कहते है।
- उसके बाद परागकण द्विकोशिकीय व द्विकेन्द्रकीय अवस्था में होते है। 60% आवृतबीजियों में परागकर्णों का परागण द्विकोशिकीय और द्विकेन्रकीय अवस्था में होता है। युग्मकोद्भिद् का परिवर्धन परागकणों के अन्दर होता है और इसे अंतः बीजाणु परिवर्धन भी कहते है। परागकण की इस अवस्था को अपरिपक्व या अंशत: विकसित नर युग्मकोद्भिद् कहते है।
परागण के बाद परिवर्धन
- परागकणों (अपरिपक्व नर युग्मकोद्भिद) का बाकी बचा हुआ परिवर्धन जायांग के वर्तिकाग्र पर परागण के बाद होता है।
- परागकण वर्तिकाग्र से नमी व शर्करा अवयव अवशोषित करते हैं। इसके कारण कोशिका द्रव्य का आंतरिक आयतन बढ़ जाता है। यह बाहर की दोनों सतह पर दबाव डालता है। इस दबाव के कारण अंत:चोल किसी भी जनन छिद्र से एक नलिका के रूप में बाहर आता है जिसे परागनलिका कहते हैं।
- परागनलिका में सबसे पहले कायिक केन्द्रक प्रवेश करके इसके शीर्ष पर पहुंच जाता है। बाद में तर्क के आकार की जनन कोशिका यरागनलिका में प्रवेश कर जाती है।
- परागनलिका के अन्दर जनन कोशिका में एक समसूत्री विभाजन होता है जिससे दो अचल नर युग्मक बनते हैं।
- उसके बाद नर युग्मकोद्भिद् तीन कोशिकीय संरचना में प्रदर्शित होते हैं जिसमें एक कायिक कोशिका और दो नर युग्मक उपस्थित होते हैं। यह तीन कोशिकीय अवस्था आवृतबीजी ( केप्सेला में भी) के परिपक्व नर युग्मकोद्भिद् को दर्शाती है। सम्पूर्ण नर युग्मकोद्भिद् अत्यधिक हासित संरचना होती है, जो बीजाणुद्भिद् पर निर्भर होती है। सबसे लम्बी परागनलिका मक्का में पायी जाती है।
मादा जनन अंग-जायांग
- मादा जननांग को जायांग कहते हैं। जायांग की मुक्त इकाई को अंडप या स्त्रीकेसर (1501) कहा जाता है। अण्डप को गुरूबीजाणुपर्ण भी कहते हैं। अण्डप या गुरूबीजाणुपर्ण के तीन प्रमुख भाग होते हैं –
- वर्तिकाग्र
- वर्तिका
- अण्डाशय
- जायांग में एक या एक से अधिक स्त्रीकेसर हो सकते हैं तथा यह क्रमशः एकांडपी या बहुअंडपी कहलाता है। बहुअंडपी जायांग में स्त्रीकेसर स्वतंत्र (वियुक्तांडपी) या आपस में संगलित (युक्तांडपी) हो सकते हैं।
- अण्डप का स्वतंत्र सिरा जो परागकणों को ग्रहण करता है वर्तिकाग्र कहलाता है। वर्तिकाग्र तथा अण्डाशय के बीच एक लम्बी पतली नली समान संरचना वर्तिका कहलाती है। अण्डप का आधारीय भाग फुला हुआ होता है इसे अण्डाशय कहते हैं। बीजाण्ड को गुरूबीजाणुधानी भी कहते हैं। अण्डाशय में एक से अधिक बीजाण्ड उपस्थित रहते हैं जो अण्डाशय के अंदर गर्भाशयी गुहा या कोष्ठक में गद्दे की तरह के ऊतक जिसे बीजांडासन (918००1() से जुडे रहते हैं।
- कैप्सेला का जायांग द्विअण्डपी, युक्ताण्डपी, एक कोष्ठीय तथा उर्ध्ववर्ती होते है। यह परिपक्व होने पर आभासी पट के कारण द्विकोष्ठीय हो जाता है।
बीजाणु या गुरूबीजाणुधानी की संरचना
- अण्डाशय की भित्ति पर एक रिड्ज या वृंत जैसी अतिवृद्धि पायी जाती है जिसे बीजाण्डासन कहते हैं। इस पर बीजाण्ड लगे रहते हैं।
- प्रत्येक बीजाण्ड एक पतले वृन्त द्वारा बीजाण्डासन से जुड़ा रहता है जिसे बीजाण्डवृन्त कहते हैं।
- बीजाण्ड का वह स्थान जहां बीजाण्डव॒न्त, बीजाण्ड से जुड़ा रहता है नाभिका (या हाइलम ) कहलाता है।
- बीजाण्ड का मुख्य भाग मृदूतक कोशिकाओं का बना होता है जिसे बीजाण्डकाय या न्यूसेलस कहते हैं।
- न्यूसेलस बीजाण्ड का सबसे महत्वपूर्ण भाग है। बीजाण्डकाय बाहर से एक या दो आवरणों से घिरा रहता है। इन्हें अध्यावरण या ईन्टेग्यूमेन्ट कहते हैं।
- ऐसे स्थान जहां से बीजाण्डवृन्त तथा अध्यावरण विकसित होते हैं उसे निभाग कहते हें। निभाग के विपरीत सिरे पर अध्यावरण अनुपस्थित होता हे इस कारण इस स्थान पर एक छोटा सा छिद्र बन जाता है इसे बीजाण्डद्वार कहते हैं।
- बाइटेग्मिक बीजाण्ड में माइक्रोपाइल के दो भाग होते हैं
- बाहरी भाग जो बाहरी अध्यावरण से घिरा होता है, “एक्सोस्टोम” कहलाता है।
- आंतरिक भाग, जो आंतरिक अध्यावरण के बीच में स्थित होता है, को “एण्डोस्टोम” कहते हैं।
- अधिकांश आवृतबीजी में बीजाण्डकाय का सम्पूर्ण भाग विकसित होते हुए भ्रूण द्वारा उपयोग में ले लिया जाता हे परन्तु कुछ आवृतबीजियों में बीजाण्डकाय का कुछ भाग बीजाण्ड में शेष रह जाता है जो कि बीज में भी उपस्थित रहता है उसे परिभ्रूणकोष ( पेरिस्पर्म ) कहते हैं।
- परिभ्रूणपोष सामान्यतया पाइपेरेसी कुल (पाइपर नाइग्रम) तथा जिन्जीबरेसी कुल (हल्दी, अदरक) में पाया जाता है।
- फ्यूनीकल से (कभी-कभी बीजांडसन से) कुछ तंतु जुड़े होते हैं इन्हें आब्टूरेटर्स कहते हैं। ये आब्टूरेटर्स परागनलिका को अण्डाशय में बीजांडद्वार की ओर निर्देशित करने का कार्य करते हैं।
- अधिकांश बीजाण्डों में बीजाण्डवृन्त बीजाण्ड के शरीर से कुछ दूरी तक जुड़कर (पार्श्व में) एक उभार के समान संरचना बनाता है जिसे रेफे कहते हैं।
- बीजाण्डवृन्त में संबहन ऊतक उपस्थित होते हैं जो कि बीजांडासन से भोज्य पदार्थ बीजाण्ड को पहुंचाते हैं।
कुछ विशेष प्रकार के अध्यावरण
- एरिल : यह एक प्रकार से तीसरा अध्यावरण होता है, जिसका निर्माण बीजाण्डवृन्त से बीजाण्ड के आधार पर होता है। उदाहरण – मिरिस्टिका, एस्फोइडेलस व लीची।
- प्रच्छटक (ओपरक्यूलम) £ यह स्टौपर नुमा संरचना होती है जो बीजाण्डद्वार पर बनती है। इसका निर्माण आंतरिक अध्यावरण की लम्बाई के बढ़ने से होता है। उदाहरण – लेम्नेसी कुल
- केरनन्कल या स्टोफिओल : इसका निर्माण बीजाण्डद्वार पर बाह्य अध्यावरण की शीर्ष कोशिकाओं के लम्बाई में बढ़ने से होता है। इसका निर्माण भी शर्करायुक्त पदार्थों से होता है। इसलिए यह बीजों के अंकुरण के दौरान जल अवशोषित करके अंकुरण में सहायता प्रदान करता है तथा इन बीजों का प्रकीर्णन चींटियों के द्वारा होता है जिसे मिरमिकोकोरी कहते हैं। उदाहरण अरण्डी।
बीजाण्ड के प्रकार
अध्यावरण के आधार पर
- एक आवरण वाले बीजाण्ड को युनिटेग्मिक बीजाण्ड कहते हैं। उदाहरण – गेमोपेटेली तथा जिम्मोस्पर्म में।
- दो आवरणों वाले बीजाण्ड को द्विअध्यावरणी बीजाण्ड कहते हें। उदाहरण-अधिकांश एंजियोस्पर्म में [पोलीपेटेली-जैसे कैप्सेला और एक बीजपत्री में|
- कुछ पादपों के बीजाण्ड में एक भी अध्यावरण नहीं पाया जाता, ऐसे बीजाण्ड को एटेग्मिक बीजाण्ड कहते हैं। उदाहरण – आलेक्स, लिरयोस्मा, लोरेन्थस व सेन्टालमा
न्यूसेलस के आधार पर
- टेनीन्यूसेलेट ; इसमें न्यूसेलस अल्पविकसित या एक पतली परत के रूप में होता है। यह आदिम प्रकार का होता है। उदाहरणगेमोपेटेली समूह।
- क्रेसीन्यूसेलेट : इनमें न्यूसेलस संहत होता है अर्थात् अनेक स्तरों का बना होता है। उदाहरण – पोलीपेटेली समूह और एकबीजपत्री।
- कम्पोजोटी कुल के पादपों में बीजाण्डकाय नष्ट हो जाता है तथा अध्यावरण वृद्धि करके न्यूसैलस जैसा ऊतक बनाते हैं इसे एण्डोथिलयम अथवा अध्यावरणीय टेपीटम कहते हैं। यह बहुगुणित संरचना होती है।
- पोडोस्टोमेसी कुल के सदस्यों में न्यूसेलस घुलकर एक पोषक गुहा बनाता है। इसे स्थुडो भ्रूणकोष कहते हैं
बीजाण्डद्वार, निभाग एवं नाभिका का बीजाण्डकाय और बीजाण्डवृन्त के आपसी स्थितिक सम्बन्धों के आधार पर
- एट्रोपस या आर्थोदोपस या ऋजु बीजाण्ड : ऐसे बीजाण्ड सीधे होते हैं। इनमें बीजाण्डद्वार, निभाग तथा नाभिका तीनों एक ही सीधी उदग्र रेखा पर स्थित होते हैं। उदाहरण – पाइपर, पान पोलीगोनम तथा सभी जिम्नोस्पर्म में। यह सबसे सरल तथा आदिम प्रकार का बीजंद होता है
- एनाट्रोपस बीजाण्ड : इसमें बीजाण्ड का शरीर बीजाण्डवृन्त की वृद्धि के | कारण 180″ के कोण पर घूमा होता है। अतः इन्हें उल्टे बीजाण्ड भी कहते , हैं। इस बीजाण्ड में निभाग व बीजाण्डद्वार एक सीधी रेखा में स्थित होते हैं। इसमें बीजाण्डद्वार तथा हाइलम पास-पास स्थित होते हैं। 80% |. आवृतबीजियों में एनाट्रोपस बीजाण्ड पाया जाता है परन्तु केप्सेला में नहीं। ‘ इस प्रकार के बीजाण्ड में बीजाण्डद्वार नीचे की ओर होता है। यह सबसे सामान्य प्रकार का बीजाण्ड है इसलिए इसे आवृतबीजी का प्रारूपिक ‘ बीजाण्ड भी कहते हैं। इसे रेसुपिनिट बीजाण्ड भी कहते हैं। उदाहरण – मालवेसी, कुकुरबिटेसी, सोलेनसी, कम्पोजिटी कुल के सदस्य।
- अर्धप्रतीष अथवा हेमीऐनादोपस लीजाण्ड ; इस बीजाण्ड का शरीर बीजाण्डव॒न्त पर 90 के कोण पर घूमा होता है अर्थात् बीजाण्ड का शरीर बीजाण्डव॒त के दाहिने कोण पर उपस्थित होता है। यह आशर्थोट्रोप्प व एनाट्रोपस बीजाण्ड के बीच का मध्यवर्ती बीजाण्ड है। इस बीजाण्ड को क्षितिज बीजाण्ड भी कहते है क्योंकि बीजाण्ड का शरीर बीजाण्डब॒न्त पर क्षेतिज स्थिति पर उपस्थित होता है। इसमें बीजाण्डद्वार जब निभाग एक सीधी रेखा में होते हैं परन्तु बीजाण्डद्वार हाइलम से दूर स्थित होता है। उदाहरण – रेननकुलस, ग्रायमूला तथा गोल्फीमिया।
- केम्पाइलोटोपस या वक्र खीजाण्ड: इस बीजाण्ड में बीजाण्ड का शरीर इस प्रकार से वक्रित होता है जैसे | कि बीजाण्डद्वार और निभाग दोनों एक सीधी रेखा में स्थित नहीं होते है। इसमें भ्रणकोष और बीजाण्डकाय दोनों ही वक्र आवस्था में होते हैं परन्तु बीजाण्डद्वार हाइलम के पास आ जाता है। उदाहरणलैग्यूमिनोसी, कपैरीडेसी तथा क्रूसीफेरी कुल के पादपों में, (केप्सेला में)
- एम्फीट्रोपस बीजाण्ड : इस प्रकार के बीजाण्ड में बीजाण्डकाय में वक्रण अधिक प्रभावशाली होता है तथा बीजाण्डकाय के वक्रण के प्रभाव से भ्रूणफोष मुड़कर घोड़े की नाल की आकृति का हो जाता है। इसमें बीजाण्डद्वार हाइलम के पास आ जाता हे। इसे अनुप्रस्थ बीजाण्ड भी कहते हैं। उदाहरण-मियाबिलिस, लेम्ना, पोपी, एलिस्मा, ब्यूटोमेसीएई कुल।
सिर्सिनोट्रोपस या कुण्डलित बीजाण्ड : इस प्रकार के बीजाण्ड में बीजाण्डवृन्त के पार्श्व में अत्यधिक वृद्धि होने से बीजाण्ड का शरीर एक बार उल्टे होने के बाद पुनः घूमकर सीधा हो जाता है। * बीजाण्ड का शरीर, बीजाण्डवृन्त पर 360″ के कोण पर घूम जाता है। इसमें बीजाण्ड का शरीर चारों ओर से बीजाण्डवृन्त के द्वारा घिरा रहता है। इसे कुंडलित बीजाण्ड भी कहते है। बीजाण्डद्वार हाइलम से दूर स्थित होता है। उदाहरणकेक्टेसी कुल – नागफनी में।