परागण | परागण के प्रकार | POLLINATION | परपरागण

परागण (POLLINATION)

  • परागकणों का एक पुष्प के परागकोष से एक ही जाति के एक ही पुष्प या अलग-अलग पुष्पों के वतिकांग्र पर पहुंचने की क्रिया को परागण कहते हैं। परागण की क्रिया केवल जिम्नोस्पर्मस और आवृतबीजियों में घटित होती है।

परागण के प्रकार

परागण दो प्रकार का होता है – स्वपरागण या परपरागण

स्वपरागण या ऑटोगैमी

  • जब परागकण एक ही पुष्प के परागकोष से उसके ही वर्तिकाग्र तक स्थानान्तरित होते हैं तो इसे स्वपरागण या ऑटोगैमी कहते हें।
  • स्वपरागण हेतु अनुकूलन
    • उभयलिंगता का अर्थ है पुष्पों का द्विलिंगी होना।
    • समकालपक्वता : पुष्पों के परागकोष तथा “ वर्तिकाग्र का एक ही समय में परिपक्व होना स्वपरागण की क्रिया को प्रेरित करता है। उदाहरण-मिराबीलिस, आलू, सूरजमुखी, गेहूँ, चावल, आदि।
    • अनुन्मील्यता या क्लिस्टोगेमी : कुछ पौधों में ऐसे द्विलिंगी पुष्प बनते हैं जो जीवनकाल में कभी भी नहीं खिलते। इस प्रकार के पुष्पों को अनुन्मील्य पुष्प कहते हैं, जैसे कोमेलाइना, वायोला कोमेलाइना में दोनों प्रकार के पुष्प होते हैं। एक तो वह पुष्प जो अनुन्मील्य होते है और दूसरे वह पुष्प जो उनन्‍मील परागणी होते हैं जिनमें परागण खुले हुए पुष्पों में घटित होता है जो अपने लैंगिक अंग को दिखाते है। उन्‍मील परागणी पुष्प परागण की अनुपस्थिति में सुनिश्चित रूप से बीज पैदा करते हैं।

लेग्यूम पादपों के पुष्पों में एक विशेष प्रकार की अनुन्मील्यता पायी जाती है। इनमें जननांग एक दलों से बनी संरचना में बंद होते हैं जिसे नौतल कहते हैं। यह नौतल कभी नहीं खुलता। इस कारण इन पादपों में भी केवल स्वपरागण होता है।

परपरागण या ऐलोगैमी

  • जब परागकण उसी जाति के दूसरे पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुंचते हैं तो इसे परपरागण कहते हैं। यह दो विभिन्‍न पुष्पों के मध्य होता है।
  • परपरागण दो प्रकार का होता है-
    • सजातपुष्पी परागण
    • संकरोत्पत्ति परागण
  • सजातपुष्पी परागण : जब एक ही पादप के दो पुष्पों के मध्य परागण की क्रिया होती है तो इसे जीटोनोगेमी कहते हैं। यह आनुवांशिक तौर पर स्वपरागण है क्योंकि एक ही पादप के सभी पुष्प आनुवांशिक तौर पर समान होते हैं। लेकिन पारिस्थितिकी विज्ञान में इसे परपरागण कहते हैं।
  • संकरोत्पत्ति : जब परागण की क्रिया एक ही जाति के दो अलग-अलग पादपों के पुष्यपों के मध्य होती है तो इसे जीनोगेमी कहते हैं। यह वास्तविक पर-परागण होता है। आनुवांशिकी तथा पारिस्थितिकी विज्ञान में दोनों प्रकार से यह पर-परागण होता है।
  • परपरागण हेतु अनुकूलन या बहि: प्रजनन युक्‍तियाँ -.
    • एकलिंगता : पुष्पों का एकलिंगी होना भी पर-परागण को प्रेरित करता है। इन पुष्पों में स्वपरागण कभी नहीं होता। इसका मतलब एलोगैमी आवश्यक हो जाती है। उदाहरण – मोरस, पॉम, खीरा तथा कुकुरबिटा, कोरिका।
    • विषमकाल पक्‍वता (शांटाण्ट॥४९) ४ अधिकांश पौधों में पर-परागण का एक प्रमुख कारण भिन्‍न कालपक्वता है। अधिकांश द्विलिंगी पुष्पों में पुष्प के पुंकेसर और अंडप भिन्न-भिन्न समय में परिपक्व होते हैं।

यह दो प्रकार की होती है

    • पुपूर्वता : जब परागकोष, अंडप से पहले परिपक्व हो जाते हैं तो इसे पुपूर्वता कहते हैं। आवृतबीजियों के अधिकांश पादपों में पुपूर्वत के कारण ही पर-परागण होता हे। उदाहरण साल्विया।
    • स्त्रीपूर्वता : जब पुष्प में अण्डप पुंकेसर से पहले परिपक्व होता है। यह बहुत कम पादपों में पायी जाती’ है। उदाहरण – फाइकस बेगालेन्सिस, अशोक, फाइकस रिलिजियोसा, एरिस्टोलोकिया, क्रुसीफेरी के अधिकांश पादप और रोसेसिएई कुल।
  • उन्मील परागण या परागोद्भव ( प्रफ़ल्लन ) : पुष्पकलिका का पुष्प के रूप में खुलना प्रफुल्लन कहलाता है।
  • अवरूद्ध परागणता या हरकोगैमी : जब पुष्पों में परगकोष तथा वर्तिकाग्र के बीच पुष्प में ऐसा संरचनात्मक अवरोध आ जाता है कि युष्प में परागकोष से परागकण उसी पुष्प के वर्तिकाग्र तक नहीं पहुंच सकता तथा स्वपरागण नहीं होता है। ऐसी अवस्था में पुष्प में केवल पर-परागण ही सम्भव है। जैसे – ग्लोरीओसा, कलोट्रोपिस और कैरयोफाइलेसी कुल।
  • विषमयर्तिकात्य: कुछ पौधों के पुष्पों के पुंकेसरों के पुतन्तु तथा वर्तिका की लम्बाईयों में अंतर होता है। कुछ पौधों में लम्बे पुंकेसर (पुतंतु) तथा छोटी वर्तिका तथा कुछ पौधों में लम्बी वर्तिका तथा छोटे पुंकेसर होते हैं। इस कारण से इन पादपों में स्वपरागण सम्भव नहीं होता है। उदाहरण – प्रिमरोज तथा अलसी ,
  • स्वबन्धयता या स्व असंगतता या अन्त:विशिष्ट असंगतता (बहि: प्रजनन युक्तियाँ): कुछ पौधों में एक पुष्प का परागकण उसी पुष्प की वर्तिकाग्र पर पहुंचने पर भी अंकुरित नहीं होता है। इस दशा को स्वबन्धयता कहते हैं। यह एक पैतृक गुण है जो जीन्स द्वारा नियंत्रित रहता है। जैसे – पिटूनिया, मालवा, चाय, पैसीफ्लोर, वाइटीस, सेब ( मैलस)।
  • असंगतता सें कई जटिल अभिक्रियाऐँ सम्बन्धित होती है जो परागकणों एवं वर्तिका के ऊतकों की अन्योन्य क्रियाओं के फलस्वरूप सम्पन्न होती है। यदि असंगतता बीजाणुद्भिदी या वर्तिकाग्र के ऊतकों के कारण होती है तो यह बीजाणुद्‌भिदी असंगतता कहलाती है। दूसरी ओर यदि यह परागकण के जीन प्रारूप के कारण होती है तो इसे युग्मकोद्भिदी असंगतता कहते हैं। यह परागकणों के अंक्रण में रूकावट, वृद्धि में भेदन, परागनलिका के किदिकविन्यास और यहां तक कि केन्द्रकीय संलयन में असफलता के कारण हो सकती है। यह बहुअलील युक्त जीन्स के द्वारा नियंत्रित होती है।

पर-परागण की विधियां

परपरागण में बाहरी प्रतिकर्ता की जरुरत परागकण को एक पुष्प से दूसरे पुष्प में स्थानान्‍तरण करने के लिए पड़ती जैसे-हवा, कीट, जल, पक्षी आदि।

वायु परागण

  • जब परागकण वायु द्वारा एक पुष्प से दूसरे पुष्प तक पहुंचाये जाते॥ तो इसे वायु परागण तथा पुष्पों को वायु-परागित पुष्प कंहते हैं। जैस फसली पौधे, मक्का, आदि।
  • जिम्मोस्पर्म में भी वायु परागण पाया जाता है।
  • वायु परागित पुष्पों के परागकण बहुत अधिक संख्या में बनते है परागकण बहुत छोटे, हल्के, चिपचिपाहट रहित तथा शुष्क होते तथा इनकी वर्तिकाग्र रोमिल तथा चिपचिपी होती हे।
  • वायुपरागित पुष्प न तो आकर्षक होते हैं और न ही इनमें खुशबू होती है। इनमें मकरन्द ग्रन्थियां भी अनुपस्थित होती है। वायुपरागित पुष्प सामान्यत: एकलिंगी होते हैं।
  • वायु परागित पुष्पों में एक पुष्पक्रम में असंख्य पुष्प गुच्छ होते हें तथ अंडाशय में एक बीजांड होता है। उदाहरण-गन्ना, बांस, नारियल, कैनाबिस, घास, खजूर।
  • जब परागण जल द्वारा होता है तो इसे जल परागण कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है –
  • एपिहाइड्रोफिली एवं हाइपोहाइड्रोफिली एपिहाइड्रोफिली : जब परागण की क्रिया जल की सतह पर होती है। जैसे – वेलिसनेरिया तथा रूपिया में।
  • वैलिसनेरिया में नर पुष्प या परागकण पानी की सतह पर अवमुक्त होते हैं तथा जल धाराओं में बहते रहते हैं। मादा पुष्प एक लम्बे वृत द्वारा जल की सतह पर आ जाते हैं। ह
  • हाइपोहाइड्रोफिली : जब परांगण की क्रिया जल के अंदर होती है। जैसे – सिरेटोफिल्लम, नाजस, जोस्टेरा, तथा हाइड्रिला में। इनके परागकणों में विशेष प्रकार की ग्रेविटी पायी जाती है. जिससे परागकण जल के भीतर निलम्बित रहते हैं।

समुद्री घासों जैसे जोस्टेरा में, गीले श्लेष्मक आवरण द्वारा संरक्षित लंबे, फीते जैसे परागकण जल के अंदर अवमुक्त होते हें तथा प्रानी द्वारा जलमग्न मादा पुष्पों तक पहुँचाए जाते हैं।

जूफिली

  • जब परागण की क्रिया जंतुओं द्वारा होती हो तो इसे जंतु परागण कहते हैं। जंतु परागित पादपों में पुष्प बड़े आकार के रंगीन व मकरंद युक्त होते हैं। इनमें मकरंग ग्रंथियां कीट पारगित पादपों से भी अधिक पायी जाती है। जूफिली निम्न प्रकार की होती है |
    • पक्षीय परागण : जब परागण की क्रिया चिडियों द्वारा होती है तो इसे पक्षी-परागण कहते हें। जैसे – सनबर्ड या हमिंग बर्ड द्वारा बिगनोनिया पादप में तथा स्ट्रीलिटजिया पादप, कंलीस्टेमॉन, बोम्बेक्स (रेशमी. कपास पादप), ब्यूटिया मोनोस्पर्मा में हनी बर्ड के द्वारा।
    • चमगावड़ परागण : जब परागण चमगादड़ द्वारा हो तो इसे चमगादड़ “परागण कहते हैं। उदाहरणटेरोपस द्वारा। ये पुष्प अधिक बड़े होते हैं। जेसे एन्थोसिफेलस कदम्बा, बोहीनिया तथा किग्लीया पादप, ऐडेनसोनिया
  • मिरमिकोफिली या दीमक परागण : यह परागण दीमक तथा. : चौींटियों द्वारा होता है। उदाहरणप्रोसोपिस (कीकर), अकशिया और रूबीएसिएई कुल के कुछ सदस्य।
  • मेलेकोफिली या मालमेकोफिली : यह परागण घोंघों द्वारा होता है। जैसे ऐस्पीडिस्ट्रा ल्रीडा तथा क्राइसेल्थेमम पादप में।