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कीट परागण | निषेचन | युग्मक संलयन |

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कीट परागण

  • जब परागण कीटों द्वारा सम्पन्न किया जाता है तो इसे कीट परागण कहते हैं। अधिकांश कीट परागण (80%) केवल मधुमक्खी के द्वारा होता है। ये अधिकांशत: शोभाकारी होते हैं।
  • शोभाकारी पादप इस परागण में अपनी सबसे ज्यादा ऊर्जा खर्च करते हैं तथा कीट-परागण हेतु ज्यादा से ज्यादा अनुकूलन पैदा करते हैं। इन पुष्पों में आकर्षक रंग होते हैं। इनके पुष्पों में खुशबू पायी जाती है। मकरन्द ग्रथियां भी पायी जाती हें।
  • कीट परागित पुष्पों के परगकण पोलनकिट के कारण चिपचिपे होते हैं। इन पुष्पों की वर्तिकाग्र खुरदरी होती है।
  • कीटों द्वारा परागित पुष्प उनकी भेंट जारी रखने के लिए मकरंद और परागकण प्रदत्त पारितोषिक के रूप में उपलब्ध करवाते हैं। जब पारितोषिकों को पाने के लिए कीट पुष्प पर आता है तो उसका शरीर परागकणों से आवरित हो जाता है। जब कीट वर्तिकाग्र के संपर्क में आता है तो उसके शरीर से परागकणों के स्थानांतरण से परागण होता है। कई कीट पराग या मकरंद दस्यु कहलाते हैं क्योंकि वे बिना परागण किए पराग या मकरंद का भक्षण कर लेते हैं।
  • मूसेंडा पादप में कीटों को आकर्षित करने के लिए विज्ञापन ध्वज गाया . जाता है। कुछ पुष्पों में सहपत्र आकर्षित करने वाले अर्थात्‌ चमकीले तथा रंगीन होते हैं, जैसे – बोगेनविलिया में। यक्‍का पादप में एक प्रोनुबा मॉथ नामक कीट के साथ अविकल्पी सहजीवन होता है। यक्‍का पादप में प्रोनुबा मॉथ नामक कीट द्वारा परागण होता है। यह कीट पुष्प के अण्डाशय में अण्डे देता है। दोनों का जीवन चक्र एक दूसरे पर निर्भर होता है।

पराग-स्त्रीकेसर अंतर्व्यवहार

  • यह एक सक्रिय प्रक्रिया है जिसमें पराग की पहचान के बाद पराग उननयना/वृद्धि या निषेध शामिल है |
  • पराग स्त्रीकेसर अंतर्व्यवहार पादपीं में एक विशिष्ट अवसर करता है जो कोशिका का कोशिका से संचारण के आणविक के साथ-साथ निषेचन के लिए अन्तःविशिष्ट और अन्तर अवरोधकों के संचालन और विकास की समझ को स्पष्ट करता है

कृत्रिम संकरण

  • कृत्रिम संकरण फसल सुधार कार्यक्रम के प्रमुख उपागमों में से एक है| इस प्रकार के संकरण के प्रयोगों में यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण कि परागण के लिए केवल वांछित परागकणों का उपयोग किया जाता है तथा वर्तिकाग्र को संक्रमण (अवांछित परागकण) से बचाया जाता है।
  • यह विपुंसन तथा बैगिंग तकनीक द्वारा किया जाता है।
  • विपुंसन पुष्प से पराग को गिराने से पहले पुंकेसर को अलग करे की वह प्रक्रिया है जो स्वपरागण को रोकती है और परपरागण करे की आज्ञा देती है।
  • विपुंसनीय पुष्प एक उचित आकार के बैग से ढका होता है जो सामान्यतः बटर पेपर से बना होता है ताकि वो उसके वर्तिकाग्र को अनैच्छिक पर से मिलने को रोक सके। यह प्रक्रिया बैंगिंग कहलाती है।

निषेचन (फर्टिलाइजेशन)

  • नर युग्मक तथा मादा युग्मक के संलयन को निषेचन कहते हैं।
  • निषेचन की खोज सर्वप्रथम स्ट्रॉस बर्गर ने मोनोट्रोपा पादप में की थी। निषेचन की क्रिया निम्नलिखित चार अवस्थाओं में पूर्ण होती है-
    • परागकण का अंकुरण
    • बीजांड में परागनलिका का प्रवेश
    • भ्रूणकोष में परागनलिका का प्रवेश
    • युग्मकों का संलयन

परागण का अंकुरण

  • परागण के पश्चात्‌, परागकण वर्तिकाग्र पर पहुंचकर अंक्‌रित होते हैं।
  • ये वर्तिकाग्र पर पहुंचकर चकर आर्द्रत ओर शर्करा युक्त पदार्थ अवशोषित करके फूल जाते हैं। परागकण का अंतःचोल, बाह्म चोल में स्थित जनन छिद्र में से एक नलिका सदृश अधिवृद्धि के रूप में बाहर आता है, इसे परागनलिका कहते हैं।
  • अधिकांश एंजियोस्पर्म तथा कैप्सेला में एक परागनलिका निकलती है जिसे मोनोसाइफोनस अवस्था कहते हैं, लेकिन मालवेसी तथा कुकरबिटेसी कुल में एक से अधिक पराग नलिकाएऐं, बनती हैं। जिसे पोलीसाइफोनस अवस्था कहते हैं।
  • जब परागनलिका वर्तिकाग्र में से होकर वर्तिका में आती है तो परागकण में स्थित नलिका केन्द्रक तथा जननकोशिका समेत समस्त पदार्थ इस नलिका में आ जाते हैं। नलिका केन्द्रक परागनलिका के सिरे पर स्थित होता है। नलिका केन्द्रक परागनलिका की वृद्धि का नियंत्रण करता है। 2-कोशिकीय परागकणों में, जनन कोशिका में एक समसूत्री विभाजन होता है जिससे दो नर युग्मकों का निर्माण होता है। ये दोनों नर युग्मक अचल होते हैं।
  • परागनलिका की वृद्धि के लिए बोरॉन तत्व व Ca आयन (मुख्यतया बोरॉन) आवश्यक होता हे तथा पराग नलिका की वृद्धि के लिए उपयुक्त ताप 20-30 C होता है। परागनलिका शीर्षस्थ वृद्धि तथा रसायनुर्वन गति प्रदर्शित करती है।

परागनलिका का बीजाण्ड में प्रवेश

  • जब बीजाण्ड परिपक्व होता है तब परागनलिका अण्डाशय में पहुंचती है।
  • अण्डाशय में परागनलिका को आब्टूरेटर्स बीजाण्डद्वार की ओर निर्देशित करते हैं।
  • एक परिपक्व बीजाण्ड जिसमें भ्रूणकोष का निर्माण हो चुका होता है, परागनलिका के प्रवेश के तीन पथ होते हैं –
  • बीजाण्डद्वारीय प्रदेशन : इसमें परागनलिका का बीजाण्ड में प्रवेश बीजाण्डद्वार द्वारा होता है। यह विधि अधिकांश एंजियोस्पर्म ( कैप्सेला) में पायी जाती हे।
  • निभागीय प्रवेश : इस प्रक्रिया में परागनलिका बीजाण्ड के निभाग से प्रवेश करती है। यह विधि – केजुयेराइना पादप में ट्रेयूब (1891) ने खोजी।
  • अध्यावरणीय या मध्य प्रवेश : इस प्रक्रिया में परागनलिका बीजाण्ड के अध्यावरण (कुकरबिटा) अथवा बीजाण्डव॒न्त को भेदकर (पिस्टेसिया व पोपूलस) बीजाण्ड में प्रवेश करती है।

परागनलिका का भ्रूणकोष में प्रवेश

  • परागनलिका अण्डाशय में किसी भी रास्ते से प्रवेश करती है लेकिन भ्रूणकोष में वह केवल अण्ड उपकरण के द्वारा ही प्रवेश करती है। बीजाण्ड में प्रवेश करने के बाद यह अण्ड-उपकरण की तरफ वृद्धि करती है क्योंकि सहाय कोशिका परागनलिका की वृद्धि को आकर्षित करने के लिए रसायन (हार्मोन) स्रावित करती हे। अर्थात्‌ बीजाण्ड में परागनलिका “रसायन अनुवर्तन” गति दर्शाती हे।
  • जब परागनलिका अण्ड उपकरण के नजदीक आती है तो एक सहायक कोशिका नष्ट होना आरम्भ कर देती है। इसी नष्ट होती हुई सहायक कोशिका -में से होकर परागनलिका भ्रूणकोष में प्रवेश कर जाती है।
  • जब परागनलिका का शीर्ष भ्रूणकोष में प्रवेश करता हे तो कायिक केन्द्रक नष्ट हो जाता है। परागनलिका का सिरा भ्रूणकोष में पहुंचने के पश्चात्‌ फूलकर फट जाता है। परागनलिका के फटने से इसकी सभी अत्तर्वस्तुएँ जिसमें नर युग्मक भी शामिल है, भ्रूणकोष की केन्द्रीय कोशिका में मुक्त हो ज़ाती हैं।
  • नष्ट होती हुई सहाय कोशिका में इस क्रिया के बाद दो गहरी कणिकायें दिखाई देती है इन्हें £-बॉडीज कहते हैं। ये दो होती हैं। ये दोनों :-बॉडीज नष्ट होते हुए नलिका कोशिका तथा सहाय कोशिका के केन्धकों से बनती हैं।

युग्मक संलयन

  • परागनलिका के भ्रूणकोष में आने से पहले या बाद में केन्द्रीय कोशिका के दोनों ध्रुवीय केन्द्रक आपस में संलयित हो जाते हें। इनके संयुक्त होने से एक द्विगुणित (2n) केन्द्रक बनता है, इसे द्वितीयक केन्द्रक या निश्चित केन्द्रक कहते हैं।
  • दो नर युग्मकों में से एक नर युग्मक अण्ड कोशिका को निषेचित करता है तथा एक द्विगुणित युग्मनज या जाइगोट का निर्माण करता है इसे सिनगेमी कहते हैं। यह निषेचन प्रक्रिया की सत्य क्रिया है।
  • दूसरा नर युग्मक, दो ध्रुवीय केन्द्रकों के संयोजन से बने द्विगुणित द्वितीयक केन्द्रक से संयोजित होता है। इस क्रिया को त्रिसंयोजन कहते हैं। इस त्रिसंयोजन के फलस्वरूप एक त्रिगुणित (3n) केन्द्रक बन जाता है। इसे प्राथमिक भ्रूणपोष केन्द्रक कहते हैं।
  • एंजियोस्पर्स में एक ही समय में दो बार निषेचन होते हैं अतः इसे द्विनिषेचन कहते हें।
  • द्विनिषेचन की खोज सर्वप्रथम “नवाश्चिन” ने लिलियम और फ्रिटिलेरिया पादपों में की थी।
  • द्विनिषेचन तथां त्रिसंयोजन एंजियोस्पर्म के विशिष्ठ या सार्वभोमिक लक्षण हैं। द्विनिषेच्रन की क्रिया में पांच केन्द्रक तथा तीन युग्मक भाग लेते हैं।
  • सत्य निषेचन से बने द्विगुणित युग्मनज से ही आगे चलकर भ्रूण का निर्माण होता है। त्रिसंलयन के फलस्वरूप बने त्रिगुणित (39) प्राथमिक भ्रूणपोष केन्द्रक से आगे चलकर भ्रूणपोष का निर्माण होता है जो वृद्धिशील भ्रूण को पोषण प्रदान करता है।
  • निषेचन के बाद प्राथमिक भ्रूणपोष केन्द्रक तथा द्विगुणित युग्मनज के अतिरिक्त भ्रूणकोष में उपस्थित प्रतिमुखी कोशिकायें, सहाय कोशिकायें नष्ट हो जाती हैं। इस समय नष्ट होती हुई सहाय कोशिकाओं और प्रतिरूपी कोशिकाओं से युग्मनज पोषण प्राप्त करता है।
  • निषेचन जिसमें अचल नर युग्मकों का स्थानांतरण मादा युग्मक तक परागनलिका के द्वारा किया जाता है साइफोनोगैमी कहलाता है।
  • बीजाण्ड में एक से ज्यादा परागनलिका का प्रवेश सुपरन्यूमेरी नर | – युग्मक को जन्म देता हे , जिसे बहुबीजता कहते हैं।

Hello! My name is Akash Sahu. My website provides valuable information for students. I have completed my graduation in Pharmacy and have been teaching for over 5 years now.

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